Saturday, 22 April 2017

तमिलनाडु के किसानों का जंतर-मंतर पर 'अनसुना' अनशन

जंतर मंतर पर अनशन कर रहे लोगों को देखकर खुद पर गुस्सा आता है। मालूम नहीं हम किस तरह का समाज बनते और बनाते जा रहे है। एक तरफ तमिलनाडु के किसान तो दूसरी तरफ सेना के पूर्व सैनिक है। लोग और भी बहुत है,जो अपनी मांगो को लेकर जंतर मंतर पर डटे है। बिना किसी समर्थन के भी यहां लोग कई - कई महीनों से बैठे है। किसानों के नेता पी अय्यककन्नु यहां हर आने जाने वाले से बात करते हैं। वो कहते है कि "विधायक की आय 70 के दशक में 950 रूपये थी और आज 2017 में 55 हजार रूपये हो गई है तो फिर इसी अनुपात में हमारी आमदनी क्यों नहीं बढ़ी?" 

एक और किसान जी. महादेवन अपनी कहानी बाते हुए आगे कहते हैं कि "मेरी उम्र 62 साल है। पिछले साल मेरी पत्नी ने तब आत्महत्या कर ली थी, जब बैंक के कर्मचारी ने मेरे घर पर आ कर कहा था कि आपने 6 साल पहले जो एक लाख रुपए का लोन लिया था। जो अब वो कई गुना बढ़ गया है। अगर पैसे जमा नहीं कराए तो जमीन और घर नीलाम कर दिए जाएंगे। यह बात सुन कर पत्नी सदमे में चली गई। अस्पताल पहुंचने पर डॉक्टरों ने पत्नी को मृत घोषित कर दिया" 

ये लोग केंद्र सरकार से 40 हजार करोड़ रूपये का सूखा राहत पैकेज देने की मांग कर रहे है। फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाना भी इनकी मांगों में शामिल है। इसके अलावा इनकी सबसे विवादित मांग में कावेरी जल विवाद को हल करना भी है। जिसकी वजह से इनका सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। कावेरी जल विवाद एक तरह से दो राज्यों कर्नाटक और तामिलनाडु के बीच अस्मिता की लड़ाई बन गया है। जो कोर्ट के कई बार हस्तक्षेप के बावजूद सुलझ नहीं पाया। पी. अय्यककन्नु कहते है कि "कर्नाटक हाईकोर्ट के 7 बार आदेश देने के बावजूद भी सरकार जल विवाद के समझौते को लागू नहीं कर रही" 



आंदोलन के व्यापक बनने में किसानों की भाषा भी आड़े आ रही है वरना उत्तर भारत के किसान भी इनके साथी बन सकते है। कावेरी जल विवाद की वजह से इनका संकट और गहरा गया है। कर्नाटक के चुनाव करीब है जहां कांग्रेस सत्ता में है इसलिए राहुल गांधी ना कुछ कह सकते हैं ना चुप रह सकते हैं। दिल्ली के छोटे और बड़े दोनों दरबारों में भी इन किसानों की सुनवाई नहीं हो रही है। क्या इन्हें अब भी किसी प्रदर्शनकारी की खुदकुशी का ही इंतजार है?

खेती किसानी मतलब घाटे का सौदा..

आपके ऊपर लाखों का कर्ज हो और आपकी साल भर की कमाई चोरी हो जाए और अगर यह साल दर साल हो रहा हो तब आपकी क्या हालत होगी? बस ऐसा ही किसानों के साथ पिछले कई सालों से हो रहा है। सीएसडीएस का सर्वे बताता है कि 67 फीसदी किसान कर्ज के लिए स्थानीय महाजन पर निर्भर हैं। ये लोग 24 से 60 फीसद सालाना की दर से ब्याज देते हैँ। यह दर हमारे आपके होम लोन और कार लोन से पांच गुना ज्यादा है। किसानी इस दौर का सबसे जोखिम भरा रोजगार है। रबी की फसल को किसानोँ के लिए 'पिता का कंधा' माना जाता है। खरीफ की फसल खराब होने पर भी किसान की हिम्मत पस्त नहीं होती है क्योंकि उसे पता होता है कि चंद महीनोँ बाद ही उसके खेत मेँ गेहूं की सुनहरी बालियां होँगी जो सारा कर्जा पाट देँगी।

योगी सरकार ने अभी पिछले दिनों 1625 रूपये प्रति कुंतल के हिसाब से गेहूँ खरीदने का फैसला किया। पिछले साल सपा सरकार ने भी 1625 रूपये की दर से ही गेंहूँ खरीदा था। उसके पहले रेट करीब 1525 रूपये कुंतल था। 2013-14 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1400 रूपये था। 2010 -11 में करीब 1120 रूपये प्रति कुंतल के हिसाब से गेंहू खरीदा था। यानी हर साल करीब 100 रूपये कुंतल या उससे कुछ अधिक गेहूं का दाम प्रति कुंतल के हिसाब से बढ़ता है। बाकी फसलों का भी यही हाल है। अपने यूज की और चीजों से गेहूं की तुलना करने पर आपकों समझ आएगा कि खेती किसानीघाटे का सौदा क्यों बन गया है। ये सरकारी रेट है जबकि अधिकतर किसान डायरेक्ट सरकारी मंडियों तक पहुंच ना रखने की वजह से न्यूनतम समर्थन मूल्य से 300 से 400 रूपये कम पर ही गेहूं बेचते हैं। यही उन वजहों में से एक है जो हमे कई बार महाराष्ट्र से लेकर बुंदेलखंड तक खेती का भयावह चेहरा दिखाती रहती है।

मोदी सरकार के राज में किसानों की आत्महत्या रुकने की बजाय और बढ़ी है। पांच साल में किसानों की आय दोगुनी करने के दावों के बीच किसानों की बदहाली की एक बेहद चिंताजनक तस्वीर पिछले दिनों सामने आई। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक केंद्र में नई सरकार आने के बाद किसानों की आत्महत्या में 42% की बढ़ोतरी हुई है। 30 दिसंबर 2016 को जारी एनसीआरबी के रिपोर्ट 'एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2015' के मुताबिक साल 2015 में 12,602 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या की है।



उत्तर प्रदेश के चुनाव में किसानों की बदहाली मुद्दा खूब उठा। सतारूढ़ बीजेपी ने अपने वादे के मुताबिक़ किसानो का कर्ज माफ़ भी किया है लेकिन सिर्फ कर्जमाफ़ी ही किसानो की समस्याओं का समाधान होता तो यूपीए के काल में कर्जमाफ़ी से किसानों की स्थिति बदल जाती और आत्महत्या रुक जाती। खेती किसानी के प्रति सरकारों का रवैया देखकर यही लगता है कि सरकार किसी भी दल या विचारधारा की हो, वो किसान विरोधी ही होती है। असल में दिक्कत हमारी नीतियों को लेकर है। हमारी सरकारों ने कभी खेती पर ध्यान ही नहीं दिया। खेती को लेकर किसी विस्तृत योजना को अमलीजामा पहनाया ही नहीं गया। आज हमे ऐसी योजनाओं को लागू करने की जरूरत है। जो हमारे अन्नदाता के आत्मविश्वास को जगाकर खेती को मुनाफे वाला रोजगार बना सके।