Thursday, 31 March 2016

आवारा लड़के की कहानी

उसका पेट भूख के मारे ऐंठ रहा है। कुछ सालो पहले वह खाये या ना खाये लेकिन उसको कुछ स्वार्थी रिश्ते खाने को कह भर देते थे। आज वह किसी से भूखे होने की बात नही कहेगा। नल के पास जाकर आँखो मे पानी का छींटा मार कर चुपचाप भीड़ से निकल आयेगा। क्योकि वह ढ़ोगी है खुद दोहरा चरित्र वाला है उसे लगता है की पानी के छींटे उसकी बदनसीबी दूर कर देगे या फिर दुनिया उसकी उलझने देख ना पायेगी साथ ही उसमे ढेर सारी सम्भावनाये ढूंढ़ निकालेगी। 

उसने खुद तो कोई नौकरी - चाकरी की नहीं। असले में धनपशुओ की गुलामी करना उसके वश की बात नही। क्या वह हथियार उठायेगा या फिर वो अपनी बदनसीबी से यूँ ही जूझता रहेगा। नही वह हथियार उठाके किसी ना किसी को तो मारेगा फिर वो भी तो इंसान ही होगा? नही वह कैसे किसी का खून बहा सकता है फिर क्या वह यूँ ही खुद पल पल मरता रहेगा। यह सोचते - सोचते उसे जोरों की भूख लगी लेकिन इस समय वह किससे अपने भूखे होने की बात कहेगा? 

वह बेरोजगार है, अकर्मण्य है, नालायक और आवारा है क्योकि वह कुपमगज समाज के बनाये तौर तरीको की परवाह नही करता। झूठे खाँचो मे टूटे इस संसार को जोड़ने के सपने देखता है। वो चाहता है सभी के पास इतना भर जरुर हो जिससे हर कोई अपनी न्यूनतम आवश्यकताये पूरी कर सके। वह कुछ और नही करता इन्ही सुनहरे ख़्वाबो को हकीकत बनाने के लिये पल पल तड़पता है। परन्तु वह कर भी क्या सकता है? 

वह इस समय परिवार से कटा - कटा रहता है। वह दिन भर कमरे में चुपचाप पड़ा रहता है। खायेगा भी या नही, उसे कोई नही पूँछता। क्या उसके प्रति किसी का फर्ज नही या फिर उसने खुद फर्जो को नही निभाया? निराशा के अथाह जल मे वह अकेला तैरता रहता है। वह बड़ा अकेला महसूस करता है। 

कोई नही है, कोई मददगार नही उसका। वह अपने तर्क, बुद्धि, विवेक सहित अपने मे सिमटता जाता है। उसका उदार, सहिष्णु, तर्कवादी मन सब कुछ संकुचित होता जाता है। वह रिक्त होता जाता है। अपने भविष्य की आशंका से उसका ह्दय काँप उठता है। मानो वह एक भयावह मृत्यु की प्रतिक्षा कर रहा है।

लाल फ्रॉक वाली लड़की


पिछले 10 मिनट से मेरी नजर छुप - छुप के उसे निहार रही थी। उसका उदास चेहरा, बोझिल आँखे खुद में वो गुमसुम सी पड़ी पता ना किन ख्यालो में खोयी थी। उन दिनो मै खडूस हुआ करता था या यूँ कह सकते है कि स्वार्थी था जो हर किसी को उस समय काल में होना भी चाहिये। वजह ये भी हो सकती है कि ये दुनिया जो रहस्यो और रामांचो से भरी पड़ी है उस तक मेरी नजर अभी पहुँची ही नही थी। 

वो छोटे कस्बे का छोटा सा मोहल्ला था जहाँ मै अपने जैसो का साथ पाने के लिए गाँव से चलाया आया करता था और नाम ट्यूशन का दिया गया। वो लड़की जो रेड कलर के फ्राक में किसी परी से कम नही लगती थी फिर भी मुझे उसका उदास चेहरा अपनी ओर खिचता था कि आखिर वो ऐसी क्यों रहती है जो कुछ मै समझ रहा था और नही भी। 

वो कुछ कहना चाहती थी मुझसे। इसका एहसास मुझे तब हुआ जब उसने मुझे एक खत देने की कोशिश की। पहले प्यार का पहला खत पाकर उन दिनो मेरी खुमारी सातवें आसमान पर थी एक जुनून था ट्यूशन पढने जाने का या कि उस रेड फ्राक वाली को देखने का। धीरे धीरे ख़तों की अदला बदली बढती गयी और यकीन जानिये रात में पढाई के घंटे भी बढने लगे। उससे सिर्फ सहानुभूति थी या प्यार ये मै कभी समझ नही पाया।

 बहुत तकलीफ झलकती थी उसके सीधे सादे शब्दो में। उसके मम्मी पापा अक्सर झगड़ते रहते थे। उसके अकेलेपन का किसी को अहसास नही था शायद मुझ में अपना एक दोस्त ढूढ़ती थी जो उसको समझ सके, जो उसके अकेलेपन को बाट सके और जो उसे भावनात्मक सम्बल दे सके.......(जारी)
(इश्क में शोध की पहली किस्त)‪

Wednesday, 9 March 2016

म्लेच्छ वामपंथी से ‘नंदी’ नरेंदर तक

शिवजी की बारात में आये बारातियों का रंग रूप देखकर शिवजी के ससुर जी भड़क उठे. फिर घर परिवार वालों ने भी जमकर बवाल काटा। तब ससुर जी और घर वालों को बाकी देवताओं ने समझाया कि ये सब असली म्लेच्छ है माने वामपंथी है।
ये सब चल ही रहा था कि महर्षि नारदमुनि ने ससुर जी को ताना मारा कि बिटियाँ का ब्याह म्लेच्छों की टोली में करोगे तो क्या बाराती धनपशु आएंगे।
चलो इस शिवरात्रि के शुभ अवसर पर एक तस्वीर साझा साझा कर देते हैं। जिसमें आप बाल नरेंदर से नंदी नरेंदर तक की झलक पा जाएंगे।
हर हर महादेव 

महिला सशक्तिकरण के दावों की हकीकत



भारतीय समाज में नारी की स्थिति समय,काल और परिस्थिति के अनुसार बदलती रही है। समय के साथ उसकी स्थितियों में परिवर्तन आया है। वैदिक काल में नारी की स्थिति काफी मजबूत और प्रतिष्ठापूर्ण थी लेकिन धीरे-धीरे उसकी स्थितियों में बदलाव होने लगा। वक्त की आंधी ने महिला की स्थिति कमजोर व बेबसीपूर्ण स्थिति में पहुँचा दी। मध्यकाल में उनकी स्थिति दयनीय हो गई,जबकि आधुनिक काल में महिलाएँ अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जूझ रही हैं। अपने हिस्से का आसमां लेने के लिए प्रयासरत है। अपने हाथों ही एक लम्बी लाइन खींचने की तैयारी में है।
आज महिला दिवस है इस नाते हर जगह नारी सशक्तिकरण की चर्चा जोरों पर है पता नही कल किसी को याद भी रहेगा या नही पर आज तो हर जगह नारी ही नारी है। आज के माहौल में महिला सशक्तिकरण की बात करने से पहले हमें इस सवाल का जवाब ढूंढना जरूरी है कि क्या वास्तव में महिलायें अशक्त हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि अनजाने में या स्वार्थ के लिए उन्हें किसी साजिश के तहत कमजोर दिखाने की कोशिश हो रही है?
इतिहास गवाह है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ साथ “ताकतवर को ही अधिकार” मिला है। धीरे-धीरे इसी सिद्धांत को अपनाकर पुरुष जाति ने अपने शारीरीक बनावट का फ़यदा उठाते हुऐ महिलाओं को दोयम दर्जे पर ला कर खड़ा कर दिया और औरतों ने भी उसे अपना नसीब व नियति समझकर,स्वीकार कर लिया। भारत में ही नहीं, दुनिया भर में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव और शोषण की नीतियों का सदियों से ही बोलबाला रहा है। इतना जरुर कह सकते हैं कि मापदंड व तरीके अलग-अलग जरुर रहे हैं।
सीता से लेकर द्रौपदी तक को पुरुषवादी मानसिकता से दो-चार होना पड़ा है। हर युग में पुरुष के वर्चस्व की कीमत औरतों ने चुकाई है या उसे चुकाने पर मजबूर होना पड़ा है। यही वजह थी कि ‘ढोल, गंवार, शुद्र, पशु और नारी, ये सब ताडन के अधिकारी’ और ‘नारी तेरी यही कहानी, आंचल में दूध आंखों में पानी’ जैसी रचनायें रची गईं। ये साबित करने के लिए काफी है कि हमारे देश में देवी समान पूजनीय नारी के आदर औऱ सम्मान में काफी हद तक पतन हुआ है।
साल 2011 में इंदिरा गांधी शांति पुरस्कार समारोह में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी महिलाओं के सशक्तिकरण पर जोर देते हुए कहा था कि राष्ट्र की आर्थिक गतिविधियां में महिलाओं की उचित भागीदारी के बिना सामाजिक प्रगति की उम्मीद करना बेइमानी है। सही मायने में देखा जाये तो महिला सशक्तिकरण का अर्थ ही है महिला को आत्म-सम्मान देना और आत्मनिर्भर बनाना है,ताकि वो अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकें।
ऐसे में गांवों का देश कहे जाने वाला देश भारत को अभी बहुत लम्बा सफर तय करना है ताकि महिलाएं और बालिकाएं अपने बुनियादी अधिकारों,आजादी और सम्मान का लाभ उठा सकें,जो उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। जब तक महिलाओं का सामाजिक,वैचारिक एवम पारिवारिक तौर पर उत्थान नहीं होगा तब तक सशक्तिकरण का ढोल पिटना एक खेल ही बना रहेगा। दुनिया भर के नारी मुक्ति के आन्दोलनों की गूंज और समता,समानता,आजादी जैसे खूबसूरत नारे, भारत में तमाम महिला संगठनों की सक्रियता व प्रगतिशील कोशिश के बावजूद पुरुष प्रधान भारतीय समाज में नारी की स्थिति में कोई बदलाव नहीं है। आज भी समाज वही खड़ा है और बेटियां वही पड़ी दिखती है।