भारतीय समाज में नारी की स्थिति समय,काल और परिस्थिति के अनुसार बदलती रही है। समय के साथ उसकी स्थितियों में परिवर्तन आया है। वैदिक काल में नारी की स्थिति काफी मजबूत और प्रतिष्ठापूर्ण थी लेकिन धीरे-धीरे उसकी स्थितियों में बदलाव होने लगा। वक्त की आंधी ने महिला की स्थिति कमजोर व बेबसीपूर्ण स्थिति में पहुँचा दी। मध्यकाल में उनकी स्थिति दयनीय हो गई,जबकि आधुनिक काल में महिलाएँ अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जूझ रही हैं। अपने हिस्से का आसमां लेने के लिए प्रयासरत है। अपने हाथों ही एक लम्बी लाइन खींचने की तैयारी में है।
आज महिला दिवस है इस नाते हर जगह नारी सशक्तिकरण की चर्चा जोरों पर है पता नही कल किसी को याद भी रहेगा या नही पर आज तो हर जगह नारी ही नारी है। आज के माहौल में महिला सशक्तिकरण की बात करने से पहले हमें इस सवाल का जवाब ढूंढना जरूरी है कि क्या वास्तव में महिलायें अशक्त हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि अनजाने में या स्वार्थ के लिए उन्हें किसी साजिश के तहत कमजोर दिखाने की कोशिश हो रही है?
इतिहास गवाह है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ साथ “ताकतवर को ही अधिकार” मिला है। धीरे-धीरे इसी सिद्धांत को अपनाकर पुरुष जाति ने अपने शारीरीक बनावट का फ़यदा उठाते हुऐ महिलाओं को दोयम दर्जे पर ला कर खड़ा कर दिया और औरतों ने भी उसे अपना नसीब व नियति समझकर,स्वीकार कर लिया। भारत में ही नहीं, दुनिया भर में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव और शोषण की नीतियों का सदियों से ही बोलबाला रहा है। इतना जरुर कह सकते हैं कि मापदंड व तरीके अलग-अलग जरुर रहे हैं।
सीता से लेकर द्रौपदी तक को पुरुषवादी मानसिकता से दो-चार होना पड़ा है। हर युग में पुरुष के वर्चस्व की कीमत औरतों ने चुकाई है या उसे चुकाने पर मजबूर होना पड़ा है। यही वजह थी कि ‘ढोल, गंवार, शुद्र, पशु और नारी, ये सब ताडन के अधिकारी’ और ‘नारी तेरी यही कहानी, आंचल में दूध आंखों में पानी’ जैसी रचनायें रची गईं। ये साबित करने के लिए काफी है कि हमारे देश में देवी समान पूजनीय नारी के आदर औऱ सम्मान में काफी हद तक पतन हुआ है।
साल 2011 में इंदिरा गांधी शांति पुरस्कार समारोह में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी महिलाओं के सशक्तिकरण पर जोर देते हुए कहा था कि राष्ट्र की आर्थिक गतिविधियां में महिलाओं की उचित भागीदारी के बिना सामाजिक प्रगति की उम्मीद करना बेइमानी है। सही मायने में देखा जाये तो महिला सशक्तिकरण का अर्थ ही है महिला को आत्म-सम्मान देना और आत्मनिर्भर बनाना है,ताकि वो अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकें।
ऐसे में गांवों का देश कहे जाने वाला देश भारत को अभी बहुत लम्बा सफर तय करना है ताकि महिलाएं और बालिकाएं अपने बुनियादी अधिकारों,आजादी और सम्मान का लाभ उठा सकें,जो उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। जब तक महिलाओं का सामाजिक,वैचारिक एवम पारिवारिक तौर पर उत्थान नहीं होगा तब तक सशक्तिकरण का ढोल पिटना एक खेल ही बना रहेगा। दुनिया भर के नारी मुक्ति के आन्दोलनों की गूंज और समता,समानता,आजादी जैसे खूबसूरत नारे, भारत में तमाम महिला संगठनों की सक्रियता व प्रगतिशील कोशिश के बावजूद पुरुष प्रधान भारतीय समाज में नारी की स्थिति में कोई बदलाव नहीं है। आज भी समाज वही खड़ा है और बेटियां वही पड़ी दिखती है।
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